भगवान शिव अपने गले में सांप क्यों पहनते हैं? कौन हैं ये सर्प ? क्या है उसे धारण करने के पीछे का रहस्य ?

क्या आपने कभी यह जानने की कोशिश की है कि आखिर भोलेनाथ के गले में आभूषण के स्वरूप में नाग क्यों हैं?

भगवान शिव के विराट स्वरूप की महिमा बताते शिव पञ्चाक्षरी स्तोत्र की शुरुआत में शिव को ' नागेन्द्रहाराय ' कहकर स्तुति की गई है , जिसका सरल शब्दों में अर्थ है , ऐसे देवता जिनके गले में सर्प का हार है ।

भगवान श‌िव के साथ हमेशा नाग होता है। इस नाग का नाम है वासुकी। इस नाग के बारे में पुराणों में बताया गया है क‌ि यह नागों के राजा हैं और नागलोक पर इनका शासन है।

माना जाता है कि नाग जाति के लोगों ने ही सर्वप्रथम शिवलिंग की पूजा का प्रचलन शुरू किया था। 

समुद्र मंथन के दौरान वासुकि नाग को ही रस्सी के रूप में मेरू पर्वत के चारों और लपेटकर मंथन किया गया था, जिसके चलते उनका संपूर्ण शरीर लहूलुहान हो गया था।
कहते हैं क‌ि वासुकी नाग श‌िव के परम भक्त थे। इनकी भक्त‌ि से प्रसन्न होकर श‌िव जी ने इन्हें नागलोक का राजा बना द‌िया और साथ ही अपने गले में आभूषण की भांत‌ि ल‌िपटे रहने का वरदान द‌िया।

जब भगवान श्री कृष्ण को कंस की जेल से चुपचाप वसुदेव उन्हें गोकुल ले जा रहे थे तब रास्ते में जोरदार बारिश हो रही थी। इसी बारिश और यमुना के उफान से वासुकी नाग ने ही श्री कृष्क्ष की रक्षा की थी।

वासुकी ने ही कुंति पुत्र भीम को दस हजार हाथियों के बल प्राप्ति का वरदान दिया था। वासुकी के सिर पर ही नागमणि होती थी।  

कहा जाता है कि वासुकी मनसादेवी का भाई है और मनसादेवी भगवान शिव की मानस पुत्री हैं।

एक कथा यह भी -

जब शिव ने शक्ति को स्वयं से पृथक कर दिया तो वो पूर्ण रूप से वैरागी हो गए। इससे सृष्टि संचालन में कठिनाई उत्पन्न हो गयी। इनके वैराग्य को समाप्त करने के लिए ब्रह्मा जी ने वेदों की निंदा की और उनका पंचम सर शिव के कोप का भाजन बना। फिर विष्णु जी ने लीला रची। विष्णु जी ने अपने वाहन गरूर को पृथ्वी से सर्पो का अंत करने भेजा। सर्पो को रहने के लिए पाताल लोक मिला था लेकिन बहोत से सर्प पृथ्वी पर आ गए और उत्पात मचाने लगे थे। गरुड़ द्वारा सर्पो का अंत देख वासुकी महादेव की शरण मे गए और उनसे रक्षा का विनती की जो सर्प शांति पूर्वक पृथ्वी पर हैं उन्हें रहने दिया जाए। महादेव ने उन्हें सुरक्षा का वचन दिया।

वासुकी गरुड़ को रोकने चल दिये लेकिन पराजित हो गए और युद्ध मे अधिक पीड़ा सहने के कारण महादेव का आह्वाहन किया। महादेव ने प्रकट हो कर गरुड़ को वासुकी पर प्रहार करने से मना किया लेकिन विष्णु जी की आज्ञा की बात बोल कर गरुड़ फिर से आक्रमण करने चला वासुकी पर। इससे महादेव क्रोधित हो गए, फिर गरुड़ ने विष्णु जी का आहवाहन किया। धर्म और वचन के कारण विष्णु जी और महादेव में युद्ध आरम्भ हो गया। युद्ध के मध्य विष्णु जी ने महादेव के कंठ को दबा दिया जिससे क्रोधित होकर महादेव ने विष्णु जी पर त्रिशूल से उनके हृदय पर प्रहार किया, ऐसा करने के उपरांत महादेव को अपराध बोध हुआ कि उन्होंने अपने आराध्य पर त्रिशूल से प्रहार किया। उनके नेत्रों में अश्रु आ गए और वैराग्य भाव से बाहर आये।

ये दृश्य देख कर विष्णु जी ने महादेव को बताया कि ये लीला उनके वैराग्य भाव को खंडित करने के लिए रची, गरूड़ ने इस लीला के पालन हेतु उनकी अवज्ञा की। विष्णु जी द्वारा महादेव के कंठ पर जो चिन्ह बना उस कारण विष्णु जी ने महादेव को श्रीकंठ उपनाम दिया। सर्पो को हीन दृष्टि से देखा जाता था, कोई भी प्राणी उन्हें पसंद नही करता था इसलिए महादेव ने वासुकी को वर मांगने को कहा। वासुकी ने बताया कि गरुड़ जो उनका सौतेला भाई है उसे विष्णु जी का वाहन होने होने का सौभाग्य मिला तो थोड़ी कृपा सर्पो पर भी हो और सम्मान जनक स्थान उन्हें समाज मे प्राप्त हो। फिर भोलेनाथ के नाम से जाने वाले महादेव ने उन्हें तथास्तु कहा और प्रसन्न होकर वासुकी को पूछा कि क्या तुम मेरे कंठ को सुशोभित करोगे। वासुकी ने नतमस्तक होकर आभार व्यक्त करते हुए महादेव के कंठ पर स्थान पाया।

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