बेखौफ क्रांतिकारी सरदार बन्तासिंह / 14 अगस्त.. बलिदान प्रसंग

सरदार बंता सिंह.

गदर पार्टी के शोर्य का देश से बकायदा परिचय कराने वाले, अपनी मृत्यु की बात सुनते ही अच्छे से अच्छे व्यक्ति का दिल बैठ जाता है, उसे कुछ खाना-पीना अच्छा नहीं लगता, पर भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम में ऐसे क्रान्तिकारी भी हुए हैं, फाँसी की तिथि निश्चित होते ही प्रसन्नता से जिनका वजन बढ़ना शुरू हो गया. ऐसे ही एक वीर थे सरदार बन्तासिंह.

जन्म - सन 1890 ग्राम सागवाल, जालन्धर, पंजाब.

शोर्यपर्व - 25 अप्रैल सन 1915 ई. लाहौर, वर्तमान पाकिस्तान, तत्कालीन अविभाजित भारत.

बलिदान पर्व - 14 अगस्त सन 1915 ई. 

बन्तासिंह का जन्म 1890 में ग्राम सागवाल, जालन्धर, पंजाब में हुआ था. सन 1904 से सन 1905 में काँगड़ा में भूकम्प के समय अपने मित्रों के साथ बन्तासिंह सेवाकार्य में जुटे रहे. पढ़ाई पूरी कर वे चीन होते हुए अमरीका चले गये. वहाँ उनका सम्पर्क गदर पार्टी से हुआ, उनकी योजना से वे फिर भारत आ गये. 

एक बार लाहौर के अनारकली बाजार में एक थानेदार ने उनकी तलाशी लेनी चाही, बन्तासिंह ने उसे टालना चाहा, पर वह नहीं माना, उसकी जिद देखकर बन्तासिंह ने आव देखा न ताव, पिस्तौल निकालकर दो गोली उसके सिर में उतार दी, थानेदार वहीं ढेर हो गया. अब बन्तासिंह का फरारी जीवन शुरू हो गया, एक दिन उनका एक प्रमुख साथी प्यारासिंह पकड़ा गया. 

क्रान्तिकारियों ने छानबीन की, तो पता लगा कि जेलर चन्दासिंह उनके पीछे पड़ा है. 25 अप्रैल सन 1915 को बन्तासिंह, बूटासिंह और जिवन्द सिंह ने जेलर को उसके घर पर ही गोलियों से भून दिया. इसी प्रकार 4 जून सन 1915 को एक अन्य मुखबिर अच्छरसिंह को भी ठिकाने लगाकर यमलोक पहुँचा दिया गया. 

गदर पार्टी पूरे देश में क्रान्ति की आग भड़काना चाहती थी, इसके लिए बड़ी मात्रा में शस्त्रों की आवश्यकता थी, बन्तासिंह और उसके साथियों ने एक योजना बनायी, उन दिनों क्रान्तिकारियों के भय से रेलगाड़ियों के साथ कुछ सुरक्षाकर्मी चलते थे. 

एक गाड़ी प्रातः चार बजे बल्ला पुल पर से गुजरती थी, उस समय उसकी गति बहुत कम हो जाती थी. 12 जून सन 1915 को क्रान्तिकारी उस गाड़ी में सवार हो गये, जैसे ही पुल आया, उन्होंने सुरक्षा कर्मियों पर ही हमला कर दिया, अचानक हुए हमले से डर कर वे हथियार छोड़कर भाग गये, अपना काम पूरा कर क्रान्तिकारी दल भी फरार हो गया. 

अब तो प्रशासन की नींद हराम हो गयी, उन्होंने क्रान्तिकारियों का पीछा किया, बन्तासिंह जंगल में साठ मील तक भागते रहे, वे बच तो गये, पर उनके पैर लहूलुहान हो गये, थकान और बीमारी से सारा शरीर बुरी तरह टूट गया. वे स्वास्थ्य लाभ के लिए घर पहुँचे, पर उनके एक सम्बन्धी को लालच आ गया, वह उन्हें अपने घर ले गया और पुलिस को सूचना दे दी. 

जब पुलिस वहाँ पहुँची, तो बन्तासिंह आराम कर रहे थे, उन्होंने पुलिस दल को देखकर ठहाका लगाया और उस रिश्तेदार से कहा, यदि मुझे पकड़वाना ही था, तो मेरे हाथ में कम से कम एक लाठी तो दे दी होती, मैं भी अपने दिल के अरमान निकाल लेता, पर अब क्या हो सकता था, उनकी गिरफ्तारी का समाचार मिलते ही उनके दर्शन के लिए पूरा नगर उमड़ पड़ा, हथकड़ी और बेड़ियों में जकड़े बन्तासिंह ने नगरवासियो को देखकर कहा कि -

"मेरा बलिदान व्यर्थ नहीं जाएगा, कुछ समय बाद ही ये अंग्रेज आपके पैरों पर लोटते नजर आयेंगे." 

"भारत माता की जय" "बन्तासिंह जिन्दाबाद" के नारों से न्यायालय गूँज उठा. उन पर राजद्रोह का मुकदमा चलाकर 14 अगस्त सन 1915 को फाँसी दे दी गयी. 

देश के लिए बलिदान होने की खुशी में इन 50 दिनों में उनका वजन 4.5 किलो बढ़ गया था.